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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति समझाइये।
2. नीतिशास्त्र क्या है? व्याख्या कीजिए।
3. भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में क्या अन्तर है? स्पष्ट कीजिए।
4. नीतिशास्त्र और कला में अन्तर बताइए।
अथवा
"नीतिशास्त्र कला नहीं है। व्याख्या कीजिए।
5. स्पष्ट कीजिए क्या नीतिशास्त्र विज्ञान है?
6. नीतिशास्त्र का क्षेत्र स्पष्ट कीजिए।

उत्तर -

 

नीतिशास्त्र का अर्थ (Meaning Ethics)

किसी भी विज्ञान या शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक होता है कि उसकी एक परिभाषा निश्चित कर ली जाए। परिभाषा के निर्धारण से यह स्पष्ट हो जाता है कि अध्ययन की सीमा क्या है? सीमा में अध्ययन करना सदैव सरल होता है। अतः परिभाषा का निर्धारण किसी भी विज्ञान की प्रथम मूलभूत आवश्यकता है।.

नीतिशास्त्र को अंग्रेजी में इथिक्स (Ethics) कहा जाता है। शब्द विज्ञान के अनुसार, व्युत्पत्ति के आधार पर यह ग्रीक भाषा के Ethos (एथौस) शब्द से बना है। ग्रीक भाषा में Ethos से तात्पर्य चरित्र (Character) से होता है। अतः शाब्दिक अर्थ के अनुसार, मनुष्य के चरित्र से सम्बन्धित ज्ञान के अध्ययन के विज्ञान को नीतिशास्त्र कहा जाता है।

नीतिशास्त्र को Moral Philosophy के नाम से भी जाना जाता है। मॉरल (Moral) शब्द लैटिन भाषा के मोर्स (Mores) से लिया गया है। मोर्स का अर्थ रीति-रिवाज अथवा अभ्यास है। अतः शाब्दिक अर्थ में नीतिशास्त्र को रीति-रिवाज अथवा अभ्यास का शास्त्र कहा जा सकता है। अन्य शब्दों में, नीतिशास्त्र वह विज्ञान है जो मनुष्यों के अभ्यास तथा रीति-रिवाज से सम्बन्धित है।

नीतिशास्त्र की प्रकृति

नीतिशास्त्र की प्रकृति दार्शनिक है। भारतवर्ष में दार्शनिक चिन्तन के प्रसंग में ही नैतिक समस्याओं पर विचार किया गया है किन्तु दूसरी ओर भारतीय नीतिशास्त्र को उस अर्थ में विज्ञान कहना भी अनुचित नहीं होगा जिस अर्थ में सामान्य नीतिशास्त्र को विज्ञान कहा जाता है। विज्ञान विशेष प्रकार का ज्ञान है और चूँकि भारतीय नीतिशास्त्र में आचरण सम्बन्धी नियमों पर विचार किया जाता है, इसलिये इसे आचरण का विज्ञान कहा जा सकता है। वेदों से लेकर समकालीन भारतीय चिन्तन तक जो नीति वाक्य बिखरे पड़े हैं, उन्हें जीवन की सम्पूर्ण प्रक्रिया पर प्राचीन और अप्राचीन अनुभव और ग्रन्थों के समग्र ज्ञान पर और विभिन्न अनुभवों के संवर्ग चिन्तन पर आधारित किया गया है। उसमें विश्लेषण (Analysis) और इन्द्रियानुभव (Sense experience) आधार न होकर विवेक, बुद्धि और अन्तर्दृष्टि (Insight) सिद्धान्तों का आधार है। अधिकतर नैतिक नियम महर्षियों, सन्तों या ऐसे दार्शनिकों ने उपस्थित किये हैं जो स्वयं उच्च कोटि के विद्वान थे और जिनका चरित्र भी अत्यन्त उच्च स्तर का था। जिन नैतिक नियमों का उन्होंने प्रतिपादन किया उन नियमों को उन्होंने स्वयं अपने जीवन में उतारा था। इस प्रकार भारतीय नीतिशास्त्र में वेदों से लेकर समकालीन भारतीय चिन्तन तक एक अशस्त्र धारा दिखलाई पड़ती है।

नीतिशास्त्र का क्षेत्र

प्रो. मैकेन्जी के अनुसार, नीतिशास्त्र के चार मुख्य विभाग हैं-

1. नैतिक चेतना का मनोविज्ञान,
2. नैतिक जीवन का समाजशास्त्र,
3. नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त,
4. इस मानदण्ड को नैतिक जीवन में चालू करना।

नीतिशास्त्र के क्षेत्र को निम्नलिखित रूप में वर्णित किया जा सकता है- 

(1) नैतिक निर्णयों का विवेचन - नैतिक दर्शन में नैतिक निर्णय का महत्वपूर्ण स्थान है। नैतिक दर्शन जो निर्णय प्रदान करता है, उसे नैतिक निर्णय कहा जाता है।

(2) नैतिक गुणों का स्पष्टीकरण - मनुष्य उचित-अनुचित, पाप-पुण्य, गुण-दोष आदि सभी नैतिक गुणों के आधार पर कार्य करता हैं। व्यक्ति इन्हीं के आधार पर अपने आचरण का मूल्यांकन करता है। 

(3) नैतिक मापदण्डों का अध्ययन - नैतिक मापदण्ड का निर्धारण भी नीतिशास्त्र के नियमों के अनुसार किया जाता है। व्यक्ति उसी आधार पर उचित-अनुचित तथा अच्छे-बुरे का निर्धारण करता है।

(4) कर्तव्य तथा नैतिक बाध्यता का अध्ययन - प्रत्येक व्यक्ति जिन कार्यों या कर्मों को सही मानता है, वह उन्हीं कार्यों को करता है। परन्तु उसे यह भी ज्ञात होता है कि उसे क्या कार्य करना चाहिए? इसीलिए वह बाध्यता भी महसूस करता है।

नीतिशास्त्र के अन्य क्षेत्र निम्नलिखित हैं-

(i) नैतिक पद्धति का अध्ययन।
(ii) सद्गुणों एवं अवगुणों का अध्ययन।
(iii) दण्ड तथा पुरस्कार का अध्ययन।
(iv) नैतिक भावना का अध्ययन।
(v) नैतिक आदर्शों का अध्ययन।
(vi) मनोवैज्ञानिक, सामाजिक एवं राजनैतिक मान्यताओं का अध्ययन।

वास्तव में यदि देखा जाए तो नीतिशास्त्र के अन्तर्गत उन समस्त क्षेत्रों का अध्ययन किया जाता है, जो व्यक्ति से सम्बन्धित हैं।

भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर

भारतीय नीतिशास्त्र और पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर पाया जाता है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें कही जा सकती हैं।  

(1) भारतीय नीतिशास्त्र निरपेक्ष और पाश्चात्य नीतिशास्त्र सापेक्ष है - भारतीय नीतिशास्त्र की तुलना में पाश्चात्य नीतिशास्त्र नैतिक सापेक्षता (Relativity) पर विशेष जोर देता है। भारतीय नीतिशास्त्र में नैतिक कर्तव्य परिस्थिति निरपेक्ष (Categorical) और पश्चिम में सापेक्ष माने गये हैं।

(2) भारतीय नीतिशास्त्र अध्यात्मिक और पाश्चात्य नीतिशास्त्र लौकिक है - भारतीय नीतिशास्त्र का आधार अध्यात्मिक है जबकि पाश्चात्य नीतिशास्त्र का आधार लौकिक है। वह अध्यात्मिक नहीं है।

(3) भारतीय नीतिशास्त्र पाश्चात्य से अधिक प्राचीनतावादी है - पाश्चात्य नीतिशास्त्र की तुलना में भारतीय नीतिशास्त्र कहीं अधिक प्राचीनतावादी है। पाश्चात्य नीतिशास्त्र में परम्परा का सम्मान भारतीय नीतिशास्त्र की अपेक्षा कम है उसमें भारतीय नीतिशास्त्र की तुलना में व्यक्तिगत विवेचन और स्वतन्त्रता पर विशेष जोर दिया गया है। 

(4) सर्वागता में अन्तर - भारतीय नीतिशास्त्र पाश्चात्य नीतिशास्त्र से अधिक सर्वांग है। पाश्चात्य नीति दार्शनिकों के विचार बहुत कुछ उनके अपने दर्शन पर आधारित होने के कारण अधिक एकांकी दिखाई पड़ते हैं। 

(5) व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध में अन्तर - पाश्चात्य नीतिशास्त्र में सामाजिकता की तुलना में व्यक्ति की स्वतन्त्रता को अधिक महत्व दिया गया है, यहाँ तक कि व्यक्ति द्वारा वर्णित संकल्प ही शुभ संकल्प माना गया है। भले ही उसका परिणाम कुछ भी हो। व्यक्ति की स्वतन्त्रता के अभाव में नैतिकता नहीं हो सकती। भारतीय नीतिशास्त्र में व्यक्ति से अधिक समाज को महत्व दिया गया है और दोनों का कल्याण एक-सा माना गया है।

(6) कर्म और परिणामों के सम्बन्ध में अन्तर - भारतीय नीतिशास्त्र के विरुद्ध पाश्चात्य नीतिशास्त्र में कर्म और उसके परिणामों में कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं माना जाता है। 

(7) इन्द्रियानुभव और ऐन्द्रिक जगत के महत्व में अन्तर - पाश्चात्य नीतिशास्त्र में इन्द्रियानुभव और ऐन्द्रिक जगत को बहुधा सब कुछ मानकर नैतिक विवेचन किया गया है जबकि भारतीय नीतिशास्त्र में इनको सब कुछ नहीं माना गया है।

(8) उपदेशात्मक का अन्तर - भारतीय नीतिशास्त्र की तुलना में पाश्चात्य नीतिशास्त्र उपदेशात्मक नहीं है। यह ठीक है कि नैतिक चिन्तन में सब कहीं 'क्या करना चाहिए इसको स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। किन्तु लगभग सभी जगह नीति निर्देशन तटस्थ भाव से नैतिक समस्याओं का विश्लेषण करता है और उपदेशक का रूप ग्रहण करता है।

नीतिशास्त्र और कला में अन्तर

किसी भी विषय का व्यवस्थित अध्ययन करने के लिए उसकी प्रकृति या स्वरूप निर्धारित करना भी अनिवार्य होता है। सामान्यतः किसी भी विषय की प्रकृति स्पष्ट करने के लिये उसे दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है -

1. विज्ञान,
2. कला।

नीतिशास्त्र की प्रकृति का अध्ययन करने से पूर्व भी यही प्रश्न उठता है कि यह विज्ञान है अथवा कला। इसके लिए हमें विज्ञान अथवा कला दोनों रूपों में नीतिशास्त्र की व्याख्या करनी होगी।

मुख्य रूप से नीतिशास्त्र को क्या माना जाए, विज्ञान अथवा कला? यह निर्धारित करने के लिए कला की परिभाषा को जानना आवश्यक है।

"कला वह विद्या है, जिसका उद्देश्य सृजनात्मकता है। कला के द्वारा रचनाएँ होती हैं। कला के निश्चित नियम व बन्धन नहीं होते। वह स्वच्छंद प्रकृति की होती है।' कला के संक्षिप्त परिचय के बाद ही कहा जा सकता है कि नीतिशास्त्र कला नहीं है।

नीतिशास्त्र और कला में निम्नलिखित अन्तर हैं - 

(1) कलाकार तथा नैतिक व्यक्ति में अन्तर - नैतिक व्यक्ति वह होता है जो यथार्थ में नैतिक कार्य करता है तथा कलाकार वह होता है जो कलाकृतियों का निर्माण करता है।

मैकेन्जी के अनुसार, "एक उत्तम चित्रकार वह है जोकि सुन्दरता से चित्र बना सकता है। एक अच्छा मनुष्य वह नहीं है जो शुभ कार्य कर सकता है, बल्कि वह है, जोकि वास्तव में कार्य करता है।'

(2) मापदण्ड सम्बन्धी अन्तर - नीति तथा कला के मापदण्डों में भी अन्तर होता है। नैतिक गुणों का मूल्यांकन सम्बन्धित व्यक्ति के संकल्प के आधार पर किया जाता है तथा कला का मूल्यांकन परिणाम के आधार पर किया जाता है। यदि कोई कलाकृति उत्तम है तो उसे उत्तम ही कहा जाएगा। चाहे वह किसी ने भी क्यों न बनाई हो। परन्तु नीति में बाहरी रूप से कोई प्रभाव नहीं पड़ता अपितु संकल्प के महान् होने पर ही कोई कार्य महान् कहलाता है।

काण्ट के अनुसार, "एक शुभ संकल्प जो कुछ करता अथवा प्रभाव डालता है, उससे नहीं, किसी नियोजित साध्य को प्राप्त करने के लिए उसकी उपयोगिता से नहीं, बल्कि केवल उसके संकल्प के कारण ही शुभ है।'

(3) सीखने की प्रक्रिया सम्बन्धी अन्तर - नैतिकता में सीखने का कोई निश्चित नियम या प्रक्रिया नहीं है, जबकि कला में सीखने के निश्चित नियम होते हैं। नैतिकता किसी अध्यापक से नहीं सीखी जा सकती, जबकि कला अध्यापक से सीखी जा सकती है।

(4) कला तथा नैतिकता में अर्जन सम्बन्धी अन्तर - कला की योग्यता जन्मजात भी हो सकती है तथा अर्जित भी नैतिकता की योग्यता जन्मजात नहीं होती, यह गुण समाज में रहकर सीखा जाता है।

अतः इस आधार पर कहा जा सकता है कि नैतिकता एक कला नहीं है। अतः अब यह प्रश्न उठता है कि क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है? विज्ञान को निम्नलिखित दो वर्गों में विभक्त किया जाता है -

(1) विधायक विज्ञान, तथा
(2) नियामक विज्ञान।

1. विधायक विज्ञान के अन्तर्गत हम "है" के रूप में तथ्यों का अध्ययन करते हैं, जबकि नियामक विज्ञान में "होना चाहिए" के रूप में अध्ययन किया जाता है।

2. विधायक विज्ञान का सम्बन्ध तथ्य से होता है तथा नियामक विज्ञान का सम्बन्ध मूल्यों से होता है।

3. विधयक विज्ञान की अपेक्षा नियामक विज्ञान का क्षेत्र अधिक व्यापक होता है।

4. विधायक विज्ञान के अन्तर्गत तथ्यात्मक निर्णय होते हैं, जबकि नियामक विज्ञान सदैव मूल्यात्मक निर्णय से होता है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि नीतिशास्त्र न तो कला है, न विधायक विज्ञान और न ही यह व्यावहारिक विज्ञान है। नीतिशास्त्र एक नियामक विज्ञान है। यह विज्ञान व्यक्ति को अशुभ शुभ, उचित-अनुचित के विषय में ज्ञान प्रदान करता है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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